“Thakur Haranath’s Miraculous Spiritual Practice in the Forests of Kashmir” in English, Bengali and Hindi Language

Young Thakur Haranath in Kashmir Jungle for Sadhana Year 1897

The year was 1897.
Thakur Haranath was then serving under the Maharaja of Kashmir.
Almost daily, after completing his official duties, he would venture deep into the dense forests — where he would merge with nature and immerse himself in the worship of the Supreme Soul.

As soon as Thakur entered, flocks of birds would fly over his head and guide him deep into the forest.
One day, when Thakur was slightly delayed, the birds grew restless and waited anxiously at the edge of the woods.
Upon seeing him, they soared joyfully, casting a veil of affection over him, and led the way deep into the heart of the forest.

Thakur would sit in deep meditation.
Around him gathered the wild creatures — snakes, tigers, lions, deer, elephants — even venomous serpents would gently coil around his neck.
Tigers and lions would sit by his side like peaceful, devoted children.
This divine sight would evoke awe and love not just in humans but also in the hearts of beasts and birds.

Thakur himself said:

“In the jungle of Jammu, when I first ventured, monkeys, peacocks, and deer would flee, watching me from behind the bushes; but soon, they would rush towards me, even the smallest birds clinging to my body.”
(Apoorva Patravali, 4th Volume, Letter No. 86)

Recalling this wondrous time, Thakur said:

“I could not distinguish whether I was alive or dead. I loved all beings as treasures of my Beloved Lord. Snakes, tigers, and mad elephants — I considered them all as beloved possessions, and in return, I received their love.”
(Apoorva Patravali, 2nd Volume, Letter No. 34)

Many residents of Srinagar and Jammu had personally witnessed these marvels.

At night, when Thakur Haranath entered an isolated garden called “Hari Parbat,” the wild animals — especially tigers and other fierce beasts — would gather around him with utmost affection.
Birds would sit on his head, shoulders, arms, and chest.
His divine attraction mesmerized not only humans but all creatures.
Thus, the locals lovingly called him “Chiriya Baba”the Bird Father.

Thakur himself once said:

“While residing in Kashmir, I joyfully arranged food for lions, tigers, birds, and even insects.”
(Lord Haranath – Antya Leela, 3rd Volume, Part 1, Page 120)

Even the Maharaja of Kashmir witnessed a miraculous incident.

One day, from a distance, the king saw with his own eyes —
Thakur Haranath, bare-chested, clothed in a simple dhoti, adorned with a garland of peaceful serpents, immersed in deep meditation.
Surrounding him were tigers, lions, elephants, deer, and countless birds, all sitting serenely like devoted companions.
The Maharaja stood still, overwhelmed by awe, unable to believe his eyes!

It was truly an unparalleled divine play —
a radiant manifestation of the Supreme Soul amidst the bosom of Nature.

This was a luminous image of pure love and devotion —
where liberated beings had dissolved into the love of the Lord beyond all worldly distinctions.

This Leela (divine play) inspires us too —
to expand our hearts, to see God in all of creation, and to spread compassion and love to every being.

Even today, Thakur Haranath’s miraculous acts remind us —
True spiritual practice is not merely seeking one’s own liberation; it is through unconditional love and compassion towards all beings that we truly attain the Lord’s presence.

Thakur Haranath was truly an ocean of divine love —
to whom snakes, tigers, lions, birds, insects — all were equally dear, all were treasures of his Beloved Lord.

His life teaches us —
that the consciousness of a true devotee is boundless in love, universal in compassion, and perceives God everywhere.

Jai Shri Shri KusumHaranath!


BENGALI VERSION

ঠাকুর হরনাথের কাশ্মীরের জঙ্গলে অলৌকিক সাধনা

সাল ১৮৯৭। ঠাকুর হরনাথ তখন চাকুরিসূত্রে কাশ্মীরের মহারাজার অধীনে কর্মরত। তখন প্রায়শই নিত্যদিনের কাজ শেষ করে তিনি প্রবেশ করতেন গভীর জঙ্গলে — যেথায় প্রকৃতির সাথে এক হয়ে পরমাত্মার আরাধনায় লীন হয়ে থাকতেন।

ঠাকুরের প্রবেশের সঙ্গে সঙ্গে পাখির ঝাঁক তাঁর মাথার উপর উড়তে উড়তে জঙ্গলের ভিতরে প্রবেশ করত। একদিন, যখন ঠাকুর কিছুটা দেরি করলেন, পাখিরা অস্থির হয়ে বনছায়ার প্রান্তে অপেক্ষা করতে লাগল। ঠাকুরকে দেখা মাত্র তারা উল্লসিত কণ্ঠে ডাকতে ডাকতে তাঁর উপর মুগ্ধতার ছায়া বিস্তার করে বনভূমির গভীরে এগিয়ে গেল।

ঠাকুর ধ্যানমগ্ন হয়ে বসতেন। তাঁর চারপাশে এসে নির্ভয়ে বসত বন্য প্রাণীরা — সাপ, বাঘ, সিংহ, হরিণ, হাতি — এমনকি বিষধর সরীসৃপও ঠাকুরের গলায় আলতোভাবে জড়িয়ে থাকত। কখনও বাঘ-সিংহরা ঠাকুরের কোলের কাছে বসে থাকত শিশুর মতো শান্ত ও ভক্তিভরে। এই অলৌকিক দৃশ্য কেবল মানুষের নয়, পশুপক্ষীর হৃদয়েও বিস্ময় ও প্রেমের সঞ্চার করত।

ঠাকুর নিজেই বলেছিলেন —

“এই জম্বুর জঙ্গলে যখন প্রথম প্রথম যাই বানর, ময়ূর, হরিণ সকলে পলায়ন করিত আর মাঝে মাঝে আড়াল হ’তে দেখিত; আর তারপরেই গায়ে পড়ে থাকত, বনের ছোট ছোট পাখীগুলি পর্য্যন্ত গায়ে পড়িত।”
(পত্রাবলী, ৪র্থ খণ্ড, পত্র সংখ্যা ৮৬)

এই অপরূপ সময়ের কথা স্মরণ করে ঠাকুর বলেছিলেন —

“আমি জীবিত না মৃত কিছুই বুঝিতে পারিতাম না। সমস্তকেই প্রাণপতির ধন বলিয়া ভালবাসিতাম। সাপ, বাঘ, মত্ত হস্তী সকলেই আমার বন্ধুর ধন মনে করিতাম ও ভালবাসিতাম এবং পরিবর্তে ভালবাসা পাইতাম।”
(পত্রাবলী, ২য় খণ্ড, পত্র সংখ্যা ৩৪)

কাশ্মীরের রাজধানী শ্রীনগর ও জম্মুর বহু মানুষ নিজেদের চোখে দেখেছিলেন —
ঠাকুর হরনাথ যখন গভীর রাতে ‘হরিপর্বত’ নামক এক অগোচর উদ্যানে প্রবেশ করতেন, সেখানে বন্য পশুরা, বিশেষ করে বাঘ ও অন্যান্য হিংস্র প্রাণীরা, পরম মমতায় তাঁকে ঘিরে খেলায় মেতে উঠত।
বন্য পাখিরা এসে বসত তাঁর মাথা, কাঁধ, বাহু, বক্ষে। তাঁর অলৌকিক আকর্ষণে কেবল মানুষই নয়, পশুপক্ষীও মোহিত হতো। এই জন্য স্থানীয়রা সস্নেহে ঠাকুরকে ডাকত — “চিড়িয়া বাবা” নামে।

তিনি নিজে এক স্থানে বলেছিলেন —

“কাশ্মীরে থাকাকালীন আনন্দচিত্তে সিংহ, বাঘ, পশুপক্ষী ও কীটপতঙ্গের খাদ্য জোগাইতাম।”
(লর্ড হরনাথ – অন্ত্য লীলা, ৩য় খণ্ড, ১ম ভাগ, পৃষ্ঠা ১২০)

এই সময়ের এক মধুময় ঘটনার সাক্ষী থেকেছিলেন কাশ্মীরের মহারাজা নিজেও। একদিন, দূর থেকে রাজা স্বচক্ষে দেখেছিলেন —
ঠাকুর হরনাথ খালি গায়ে, ধুতি পরিহিত অবস্থায়, গলায় শান্ত সর্পমালা ধারণ করে গভীর ধ্যানে আচ্ছন্ন। তাঁকে ঘিরে রয়েছে বাঘ, সিংহ, হাতি, হরিণ ও অসংখ্য পাখিরা, সবাই যেন নিবেদিত প্রাণের মতো শান্তভাবে বসে আছে। এই অলৌকিক দৃশ্য দেখে রাজা বিস্ময়ে অভিভূত হয়ে দাঁড়িয়ে থাকেন, যেন নিজ চক্ষুকে বিশ্বাস করতে পারছিলেন না!

এ এক অনুপম মহা-লীলা!
এ যেন প্রকৃতির বুকের মধ্যে পরমাত্মার মূর্ত প্রকাশ!
এ যেন প্রেম ও ভক্তির জ্যোতির্ময় ছবি — যেখানে বন্ধনমুক্ত প্রাণ, নির্বিকল্পভাবে ভগবৎ-সত্তার প্রেমে আত্মসাৎ হয়েছে।

এই লীলা আমাদেরও অনুপ্রাণিত করে —
নিজের অন্তরকে উদার করে, সমস্ত সৃষ্টির মধ্যে ভগবানকে দেখতে, সমস্ত জীবের মধ্যে করুণা ও প্রেম বিস্তার করতে।

আজও ঠাকুর হরনাথের এই লীলা আমাদের মনে করিয়ে দেয় —

প্রকৃত সাধনা মানে কেবল নিজের মুক্তির সাধনা নয়; বরং সমস্ত জীবের প্রতি নিখাদ প্রেম ও করুণার মধ্য দিয়েই প্রভুর সান্নিধ্যে পৌঁছানো। ঠাকুর হরনাথ ছিলেন প্রকৃত অর্থে এক প্রেম সমুদ্র — যাঁর কাছে সাপ, বাঘ, সিংহ, পক্ষী, কীটপতঙ্গ — সবই সমান প্রিয়, সবই তাঁর প্রাণপতির ধন। তাঁর জীবনের এই অধ্যায় আমাদের শেখায় — প্রকৃত ভক্তের চেতনা এমনই হয়, যেখানে ভালোবাসা সীমাহীন, করুণা সর্বজনীন, আর ঈশ্বরের দর্শন সর্বত্র।

জয় শ্রীশ্রী কুসুমহরনাথ


HINDI VERSION

ठाकुर हरनाथ का कश्मीर के जंगलों में अद्भुत साधना लीला

सन् 1897।
ठाकुर हरनाथ उस समय कश्मीर के महाराजा के अधीन कार्यरत थे।
लगभग प्रतिदिन, अपने दैनिक कार्यों के पश्चात, वे घने जंगलों में प्रवेश करते थे — जहाँ वे प्रकृति से एकाकार होकर परमात्मा की साधना में लीन हो जाते थे।

जैसे ही ठाकुर प्रवेश करते, पक्षियों के झुंड उनके सिर के ऊपर उड़ते हुए जंगल के भीतर उनका मार्ग प्रशस्त करते।
एक दिन, जब ठाकुर थोड़ा विलंब से पहुँचे, तो पक्षी व्याकुल होकर वन-सीमा पर प्रतीक्षा करने लगे।
जैसे ही ठाकुर दिखाई दिए, पक्षी आनंदमग्न होकर चहचहाते हुए प्रेम के बादल की तरह उन्हें घेरे हुए भीतर ले गए।

ठाकुर ध्यानमग्न होकर बैठते।
उनके चारों ओर निर्भय होकर वन्य जीव — साँप, बाघ, सिंह, हिरण, हाथी — आकर बैठते।
यहाँ तक कि विषधर सर्प भी प्रेमपूर्वक उनके गले में लिपट जाते।
बाघ और सिंह भी छोटे शिशुओं की भाँति ठाकुर के निकट बैठते — शांत व भक्तिपूर्ण।

यह अद्भुत दृश्य न केवल मानवों में, बल्कि पशु-पक्षियों के हृदयों में भी प्रेम और विस्मय उत्पन्न कर देता।

ठाकुर स्वयं कहते हैं:

“जब मैं इस जम्बू वन में पहली बार गया, तो बंदर, मोर, हिरण आदि भाग जाते थे और छुपकर मुझे देखते थे; परन्तु शीघ्र ही वे मुझसे लिपटने लगे, छोटे-छोटे पक्षी तक मेरे शरीर से चिपक जाते।”
(अपूर्व पत्रावली, खंड 4, पत्र संख्या 86)

उस मधुर काल को स्मरण करते हुए ठाकुर कहते हैं:

“मैं जीवित हूँ या मृत, कुछ भी समझ नहीं पाता था। मैं समस्त सृष्टि को परमप्रिय भगवान का धन मानकर प्रेम करता था। साँप, बाघ, उन्मत्त हाथी — सभी को मैं अपना प्रिय मानता था और बदले में प्रेम प्राप्त करता था।”
(अपूर्व पत्रावली, खंड 2, पत्र संख्या 34)

श्रीनगर और जम्मू के अनेकों निवासियों ने इन चमत्कारिक दृश्यों को स्वयं देखा था।

रात्रि में जब ठाकुर हरनाथ “हरिपर्वत” नामक एक निर्जन उद्यान में प्रवेश करते, तो बाघ आदि हिंसक पशु भी प्रेमभाव से उन्हें घेर लेते।
पक्षी उनके सिर, कंधे, भुजाओं और वक्ष पर आकर बैठते।
उनके दिव्य आकर्षण से न केवल मानव, बल्कि समस्त जीव सम्मोहित हो जाते थे।
इसलिए स्थानीय लोग प्रेमपूर्वक उन्हें “चिड़िया बाबा” कहते थे।

स्वयं ठाकुर ने कहा था:

“कश्मीर में रहते हुए, मैं आनंदपूर्वक सिंह, बाघ, पक्षियों और कीटों के लिए आहार की व्यवस्था करता था।”
(अंत्य लीला, खंड 3, प्रथम भाग, पृष्ठ 120)

कश्मीर के महाराजा भी इस दिव्य लीला के साक्षी बने।

एक दिन, दूर से महाराजा ने स्वयं देखा —
ठाकुर हरनाथ नग्न वक्ष, केवल धोती धारण किए हुए, शांत सर्पमाला धारण कर गहन ध्यान में लीन हैं।
उनके चारों ओर बाघ, सिंह, हाथी, हिरण और असंख्य पक्षी श्रद्धापूर्वक बैठे हैं।
महाराजा विस्मय-विमुग्ध होकर खड़े रह गए — अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर सके!

यह एक अनुपम महा-लीला थी —
प्रकृति के हृदय में परमात्मा का प्रत्यक्ष प्रकाश!

यह प्रेम और भक्ति का वह अद्वितीय चित्र था —
जहाँ मुक्त प्राण प्रेममग्न होकर भगवान की साक्षात उपस्थिति में विलीन हो गए थे।

यह लीला आज भी हमें प्रेरित करती है —
कि हम अपने हृदय को उदार बनाएं, समस्त सृष्टि में भगवान को देखें, और प्रत्येक जीव के प्रति प्रेम व करुणा फैलाएं।

ठाकुर हरनाथ की जीवनगाथा सिखाती है —
सच्ची साधना केवल स्व-मुक्ति की साधना नहीं है;
बल्कि सब जीवों के प्रति निष्कलंक प्रेम और करुणा से ही हम परमेश्वर के निकट पहुँच सकते हैं।

ठाकुर हरनाथ वास्तव में प्रेम-समुद्र थे —
जिनके लिए साँप, बाघ, सिंह, पक्षी, कीट-पतंग — सभी समान प्रिय थे, सभी प्रियतम प्रभु के रत्न थे।

उनका जीवन हमें सिखाता है —
कि एक सच्चे भक्त का हृदय सीमाहीन प्रेम, सार्वभौमिक करुणा और सर्वत्र परमात्मा का दर्शन करता है।

जय श्रीश्री कुसुमहरनाथ।।