
समय समयपर भगवानका सन्देश लेकर महापुरुष-संतमहात्मा इस धरा धामपर अवतीर्ण होते हैं और अपने दर्शन, स्पर्श तथा उपदेशसे भवतापतप्त प्राणियोंका अमृतदान – कर जाते हैं। उनके दर्शनमात्रसे पापी-से-पापी जीवके अन्दर भगवन्स्मृति स्फुरित हो जाती है, जैसे अँधेरी गुफामें किसीने ‘फ्लाड लाइट’ फेंकी हो। उनके स्पर्शमें वह दिव्य शक्ति होती है जिससे जन्म-जन्मान्तरसे भटकते हुए जीवको प्रभुका सुगम, सरल, निर्मान्त पथ प्राप्त हो जाता है और वह बेरवटके, बड़ी आसानी और आनन्दके साथ प्रभुके चरणोंकी शरणमें चला जाता है। उनकी वाणीसे अमर ज्ञानामृत झरता रहता है, उनके नेत्रोंसे प्रेमकी शीतल सुखद ज्योतिधारा बहती रहती है, उनके हृदयसे आनन्दका प्रवाह बहता है। उनकी प्रत्येक चेष्टा स्वाभाविक ही विश्वकल्याणके लिये होती है । वे जिस स्थानपर रहते हैं वही पुण्य-तीर्थ बन जाता है, वे जो कुछ उपदेश करते है वही पावन सत्कर्मशास्त्र बन जाता है। उनका समस्त कर्म लोकके लिये आदर्श एवं पथ-प्रदर्शक होता है। जीवनलीलाका संवरण कर लेनेपर भी वे इस धराधामपर अपनी एक दिव्य ज्योति छोड़ जाते हैं जो लाखोंमें अपनी एक निराली होती है और जिसके अलौकिक प्रकाश और पवित्र प्रेरणासे अनेकानेक जीव भगवानके पथमें चलते रहते हैं। यह पृथ्वी ऐसे ही महापुरुषोंकी पावन चरणधूलिके सम्पर्कसे ही हमारे रहने योग्य बनी हुई है । ऐसे महापुरुषोंकी वाणीके कारण ही जीवनमें रस बना हुआ है और यह जगत् भी इसी कारण फीका नहीं होने पाता !
अभी कुछ दिन पहले ऐसे पवित्रकीर्ति महापुरुषका आविर्भाव हुआ, जिन्होंने जीवनभर भगवदीय प्रकाशको प्रसारित किया – अनेकानेक जीवोंका कल्याण साधा। लोग उन्हें ‘पागल हरनाथ’ कहा करते हैं। वे सचमुच पागल ही थे, पूरे पागल ! चैतन्य पागल थे, मीरा पगली थी, परमहंस रामकृष्ण पागल थे ! वह पागलपन कितना दिव्य है जिसमें भक्त अपने को पूर्णतः भगवान् में खोकर अलमस्त-भगवत-रूप हो जाता है, लोक-पर लोक की सारी सुध-बुध भुलाकर अपने प्यारे के प्रेममें रातदिन छका अपनी मौजमें डोलता है । वह विद्याका आश्रम नहीं लेता, प्रत्युत विद्या उसकी आश्रम लेकर धन्य होती है । वह बुद्धिका आधार नहीं ढूँढता, बुद्धि उसकी चेरी बनकर अपना भाग्य सराहती है। वह तर्कोके शुष्क जालमें नहीं फँसता, वह युक्तियोंके चक्रव्यूहमें हमें नहीं जाता । वह तो अपनी सहज प्रज्ञा (Intuition) में रमता रहता है । दुनियादारी उसमें कहाँसे आये ? बहिर्मुखता का शिकार वह क्यों हो? इसी लिये, इसीलिये तो वह पागल है, पूरा पागल, सोलहों आने पागल । देवर्षि नारदने कहा है –
– यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति’—उस परमप्रेमा अमृत- स्वरूपा भक्तिको प्राप्त कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध (शान्त) हो जाता है और आत्माराम बन जाता है।
पागल हरनाथके द्वारा अनेक जीवोंका महान् कल्याण हुआ, उनके सम्पर्कमें आकर अनेकों प्राणी प्रभुके पथमें लगे, उनमें नामानुराग बढ़ा, भगवत्प्रीति बढ़ी; इस जलते-तपते. संसारमें उन्हें प्रेमामृत मिला, आनन्द मिला, शान्ति मिली, । क्या न मिला ? हरनाथने शिक्षा देनेके लिये शिक्षा कमी न दी। उपदेशकी प्रवृत्ति उनमें नहीं के बराबर थी। उनकी अधिकांश शिक्षाएँ स्वगत (Soliloquy) हैं – अपने आपको ही संबोधित करके कही गयी हैं – उनके पत्रों में भी यही बात पाकी जाती है – जैसे वे अपने-आपको ही लिख रह हों। उपदेशकका ‘अंदाज’ उनमें था ही नहीं। उनके लिये सबकुछ श्रीकृष्णमय हो गया था – इसी अभेदता (Identification) में वे सदा रमते थे ।
विद्या और बुद्धिसे परे जो सहज प्रज्ञाका प्रकाश है उसे पाकर कोई वस्तु कैसे खिल उठती है, इसें देखना हो तो प्रभु हरनाथके जीवन और उनकी शिक्षाओंका अनुशीलन कीजिये। भाषा कितनी सीधी-सादी-हृदयमें घर करलेनेवाली, भाव कितने मधुर और गहनगंभीर – आत्माके अन्दर डुबकी लगाते हुए । “प्रकृतिके विविध स्वरूप” पर लिखते-लिखते आप लिखते हैं…. ‘आग दूर से ही अच्छी लगती है; पास आनेपर वह झुलसाये बिना नहीं रहती । वहाँ तप और सिद्धियाँ कुछ काम नहीं रहतीं । स्त्री-स्वभाव-सुलभ-छल कौशलको दूरसे ही – देखनेमें एक खास मजा आता है, पास जानेपर तो जल जाने और जड़ पदार्थवत् निष्प्राण – हो जानेकी पूरी सम्भावना रहती है । यह अभेद्य निगूढ़ रहस्य है । बड़े-बड़े शूरवीर योद्धा इस व्यूहको भेदनेमें असमर्थ होकर अपनी हार मान चुके हैं । कोई अपनी स्त्री या कन्यामें भी इस सर्वव्यापिनी शक्तिकी उपेक्षा न करे ।
‘स्त्रियाँ क्या हैं – इस प्रश्नको हल करना मनुष्यकी विचार शक्तिके बाहर है । इनके – रहस्यको समझनेका एक ही उपाय है और वह यह है कि इन्हें दूर से ही प्रणाम करे । पुराने लोग कहते आये है कि अज्ञान नदीमें न तैरना चाहिये, जलचरोंका डर रहता है । इस लिये जब हम इस अपार सागरका कुछ भी हाल नहीं जानते तब क्या यही बुद्धिमानी नहीं है कि इसके जल को दूर से ही स्पर्श करके चल दें।
नारी-जातिकी अपार शक्तिको स्वीकार करते हुए आप कहते हैं – ‘स्त्रियोंका समुचित आदर करो। उन्हें समूची शक्ति और सुख-समृद्धिका मूल; उद्गमस्थान समझो । श्वान-मार्जार जातिकी नारियोंको भी उसी महाशक्ति का ही अंश जानकर वैसी ही आदर दृष्टि से उनकी ओर देखना चाहिये। उनसे कभी रूखा बर्ताव मत करो। उन्हींमें यह ताकत है कि तुम्हें शक्तिमान् या शक्तिहीन बना दें। कभी अपनी पत्नीका तिरस्कार मत करो वह चाहे कैसी भी हो। स्त्रियाँ ही प्रवेश और निर्गमके द्वार पर खड़ी हुई हमें वहीं पहुँचा देती हैं जहाँ हम जाना चाहते हैं। सब खेल वे जानती हैं; किसी खेलमें उन्हें परास्त करने की चेष्टा मत करो।’
माताके प्रति कितने सरल, कितने प्रेमिल उद्गार है –
‘जिस किसी पदार्थ पर मेरी दृष्टि पड़ती है उसीके अन्दर माताका वात्सल्य देख पाता हूँ। यदि ऐसा वात्सल्य भाव न होता तो मैं समझता हूँ यह जगत् एक क्षण भी न ठहर सकता। कोई पौधा जैसे पानीके विना जी नहीं सकता वैसे ही यह जगतू माताके वात्सल्यके विना कभी ठहर नहीं सकता।
‘माताका आशीर्वाद जिसे मिलता है वह जानता ही नहीं कि दुःख क्या है। माता प्रसन्न होकर बच्चे को आशीष दे तो उसके लिये इस जगत् में किसी बात की कमी नहीं होती। उसके दिन बड़ी शान्ति और सुखसे कटते है और अन्तमें वह श्रीकृष्णके चरण लाभ करता है। जब तक तुम्हारी माँ जी रही है, उसे हरबातमें प्रसन्न करने का प्रयत्न करो। उसे श्रीकृष्णका अवतार मानो । यदि तुम्हारी माँ प्रसन्न हो और तुम्हें आशीर्वाद दे तो उसका निश्चय ही सत्य होकर रहेगा। माता-पिता के आशीर्वाद कभी व्यर्थ नहीं होते । इस बातको पक्का समझलो और उनका आशीर्वाद पाने का प्रयत्न करो। माता-पिता के चरणों से बढ़कर कोई तीर्थ नहीं है। उनकी शरण लो, इससे घर बैठे सब तीर्थोकी यात्रा हो लेगी।
‘जीवन-समस्या’ पर आपने कितना सुन्दर प्रकाश डाला है –
‘श्रीकृष्ण चिर सखा हैं, स्वजन हैं, प्राणोंके प्राण और परम सुहृद हैं; उन्हें मत भूलो। श्रीकृष्णको छोड़कर यदि तुम और किसीको अपना प्रेमास्पद बनाओगे तो वह तुम्हें दुःख दिये विना न रहेगा। यदि तुम श्रीकृष्णसे भिन्न किसी विषयको चाहोगे तो क्लेश और यन्त्रणाके ही भागी बनोगे।
‘किसीके लिये बहुत सोच मत करो और किसी पदार्थ से मुग्ध न हो। यदि तुम किसीसे प्रगाढ़ प्रेम करना और किसीको परमादरका पात्र बनाना चाहते हो तो श्रीकृष्णः और उनके नाम से ऐसा प्रेम करो, उन्हींका ऐसा आदर करो। इसीसे तुम सदा के लिये सुखी हो जाओगे । मनुष्य से इतना ही प्रेम करना सीखो जितना मनुष्यके लिये उचित है, उससे अधिक प्रेम करके धोखा मत खायो । वर्तमानसे सन्तुष्ट रहो, भविष्यके बारे में उलझकर अपने-आपको दुःखी मत करो।
‘खेलते चलो, पर अपने मन को सदा अपने चिरन्तन सुहृदके चरणकमलोंमें लंगाये रहो । अपने पुत्र पुत्री पति आदि रूपोंमें तुम्हारे जो अनित्य साधी हैं उनके संग रहते हुए अपने हृदयस्थित परम दयालु और सच्चे सखा श्रीहरिको कभी न भूलो।
धन और वैभवके स्वरूपके सम्बन्धमें आपके विचार कितने चमत्कारी हैं –
‘श्रीकृष्णसे ही हमें ये पत्र और पुष्प उन्हें पूजनेके लिये मिलें हैं और हमें चाहिये कि हम इन्हें उन्हीं के चरणोंपर चढ़ा दें। संसारकी प्रत्येक वस्तुके मालिक वे ही है, अब सोच-संकोच किस बातका? उनका भण्डार अटूट है; देते चलो जितना देते बने।
इस प्रकार समस्त ग्रन्थ अमृतसे भरा हुआ है । श्रीहरनाथ मिशनने इस सुन्दर ग्रन्थ को प्रकाशित कर साधक-जगत् का महान् उपकार किया है। मेरा विश्वास है इस ग्रन्थके अनुशीलन एवं तदनुसार आचरण से बड़ा लाभ उठाया जा सकता है। प्रत्येक स्त्री-पुरुषसे मेरी यह प्रार्थना है कि इस ग्रन्थका अध्ययन-मनन करें तथा इसे अपने जीवन में उतरने का – इमानदारी से प्रयत्न करें। इस ‘शिक्षामृत’का अधिक-से-अधिक प्रचार हो ऐसी मेरी हार्दिक लालसा है क्योंकि इसमें एक दिव्य आत्माकी दिव्य झलक है।
(कैंप) रतनगढ़ (बीकानेर)
आषाढ़ शुक्ल ११॥२००१ वि.
(Eng : 24.06.1944)
हनुमानप्रसाद पोद्दार
‘कल्याण’ – सम्पादक
N.B. The above content is collected from the Book “हर शिक्षामृत, पहला भाग” and the content named “परिचय” Published by, Vimala Ma with “The Haranath Mission”, 361, Hornby Road, Fort, Bombay. Year 1944.
Know more about Hanuman Prasad Poddar : https://en.wikipedia.org/wiki/Hanuman_Prasad_Poddar
Jai Haranath Jai Kusumkumari Jai